Essay on destiny and effort: संसार में दो प्रकार के लोग हैं। एक प्रकार के वे लोग हैं, जो भाग्य को ही सब कुछ मानते हैं। इनका मानना है कि इस संसार में किसी भी वस्तु की कमी नहीं है। जीवन को सुखपूर्वक बिताने के लिए संसार में हर वस्तु विद्यमान है । परन्तु मिलती उन्हीं को है, जो भाग्यवान हुआ करते हैं । भाग्यवानों को इच्छा करने पर सभी कुछ अपने-आप ही मिल जाया करता है । उसे पाने के लिए उन्हें कहीं भी आने-जाने, कुछ करने की आवश्यकता नहीं हुआ करती । भाग्य स्वयं ही उनके पास सब कुछ भेज दिया करता है। यदि भाग्य खराब हो, तो आदमी कितना कुछ भी क्यों न करता रहे, उसे दो जून की रोटी के भी लाले पड़े रहा करते हैं। भाग्यहीनता उसके सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया करती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इसी तरफ संकेत करते हुए कहा है-
“सकल पदारथ हैं जग माहीं।
भाग्यहीन नर पावत नाहीं॥”
अर्थात् संसार में सब कुछ रहते हुए भी भाग्यहीन आदमी कुछ भी प्राप्त नहीं कर ना इसके विपरीत दूसरे प्रकार के वे लोग हैं, जो भाग्य को न मान हमेशा पुरुषार्थ या परिश्रम को महत्त्व दिया करते हैं । इस विचार के लोगों का मानना है कि निरन्तर परिश्रम करते रहने वाला मनुष्य अपने दुर्भाग्य को भी सौभाग्य में बदल लिया करता है । परिश्रमी व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं हुआ करता । भाग्य- भाग्य तो स्वभाव के आलसी आदमी पुकारा करते हैं । परिश्रमी आदमी आगे बढ़कर वह सब कुछ प्राप्त कर लिया करते हैं कि जो भी इच्छित और आवश्यक है । कुछ भी पाने के लिए को हाथ-पैर हिलाने ही पड़ते हैं। सामने रखा खाना भी बिना हाथ हिलाये खाया नहीं जा सकता। उसे खाने के लिए मुँह भी हिलाना पड़ता है। संसार में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि जब सामान्य स्थितियों में जन्म लेकर भी व्यक्तियों ने अपने को महान् और महत्त्वपूर्ण बना लिया। आज हम जिन छोटी-बड़ी, सामान्य और वैज्ञानिक वस्तुओं का रात-दिन प्रयोग एवं उपयोग किया करते हैं, वे भाग्य से ही प्राप्त नहीं हो गयी हैं । उन्हें पाने के लिए मनुष्यों को कठिन परिश्रम करना पड़ा है। उनका निर्माण भी निरन्तर परिश्रम या पुरुषार्थ के फलस्वरूप ही हो सका है। अतः कहा जा सकता है कि पुरुषार्थ करने वाले प्राणी के लिए कुछ भी करना, कुछ भी पाना संभव है। कोरे भाग्य के भरोसे बैठकर कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है !
भाग्यवादी भी अपने विचार को तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने की चेष्टा करते हैं । वे कहते हैं, एक सेठ साहूकार के घर जन्म लेने वाले बच्चे को अपने-आप ही वे सारी सुविधाएँ प्राप्त हो जाया करती हैं, जिनकी मज़दूर के घर जन्म लेने वाला बच्चा कभी कल्पना नहीं कर सकता। दूसरी ओर एक मज़दूर रात-दिन खटता रहता है। पेट काटकर अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा बनाना चाहता है, पर नहीं कर पाता । इसीलिए न कि उनका भाग्य साथ नहीं देता। संसार में कुछ उदाहरण ऐसे अवश्य मिलते हैं कि जब परिश्रम के बल पर कुछ लोग उन्नति कर पाने में सफल हो सके। भाग्यवादियों का मानना है कि उनकी सफलता या उन्नति का कारण उनके भाग्य का साथ देना ही है ! अगर पुरुषार्थ ही उन्नति का मूल कारण होता, तो फिर मेहनत करने वाले हर मज़दूर- किसान को बड़ा आदमी बन जाना चाहिए, पर ऐसा नहीं हो पाता। रात-दिन मेहनत करने वाले ही भूखों मरते, छोटी-छोटी इच्छाएँ पूरी कर पाने में भी असमर्थ और असफल दिखाई देते हैं। इस व्यावहारिक दृष्ट से भाग्य को ही अहम् और महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है, पुरुषार्थ को नहीं!
Essay on destiny and effort
ऊपर कही गयी भाग्य – सम्बन्धी बातों में काफी बल हैं, पर चरम सत्य इन बातों और तर्कों को नहीं माना जा सकता। कहा जा सकता है कि सेठ-साहूकार के यहां जन्म लेने वाले बच्चे ने न सही, पर सेठ साहूकार बनने के लिए उसके पिता एवं अन्य पूर्वजों ने तो तर्कों को नहीं माना जा सकता। कहा जा सकता है कि सेठ साहूकार के यहाँ जन्म लेने. अवश्य परिश्रम किया होगा। तभी तो आज वे और उनके उत्तराधिकारी सम्पन्न और सुखी हैं। सत्य यही है कि परिश्रम का फल मीठा एवं स्थायी हुआ करता है। यों तो रिश्वतखोर और काला बाज़ारिये बहुत-सा धन कमा लेते हैं, उस धन से वह सभी कुछ इच्छा के अनुसार प्राप्त कर लेते या कर सकते हैं, पर क्या वास्तव में उनका जीवन सुखी और शान्त हुआ करता है ? निश्चय ही नहीं हुआ करता! हमारा तो मानना है कि रूखी-सूखी खाकर फुटपाथ पर सो रहने वाले के मन में जो निश्चिन्तता हुआ करती है, जो सहज स्वाभाविक सुख-सन्तोष का भाव रहा करता है, वह काले धन्धे करके, रिश्वत लेकर अपने को भाग्यशाली मानने वाले की चेतना एवं मानसिकता में कभी भूलकर भी नहीं आ सकता। फिर भाग्य को ही सर्वोच्च एवं जीवन – सुख का मूल क्यों मान लिया जाये?
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ऊपर भाग्य और पुरूषार्थ के सम्बन्ध में दोनों पक्षों के जो विचार और तर्क दिये गये हैं, उन सभी का निश्चय ही अपना-अपना महत्त्व है। किसी भी तरह उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। दोनों मतों द्वारा दिये गये तर्कों का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि वास्तव में हमारे जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का समान महत्त्व है। कहा जा सकता है कि जीवन एक गाड़ी के समान है। भाग्य और पुरुषार्थ इस जीवन रूपी गाड़ी के समान महत्त्व रखने वाले दो पहिये हैं। जिस प्रकार एक भी पहिये के कमज़ोर या टूटा-फूटा होने के कारण गाड़ी नहीं चल सकती, उसी प्रकार भाग्य एवं पुरुषार्थ दोनों में सन्तुलन रहने पर ही आदमी का जीवन सच्चे सुख-शान्ति के साथ बीत सकता है। हाँ, जैसे गाड़ी, उसकी बनावट, उसे बनाने के लिए प्रयोग में लायी गयी सामग्री, गाड़ी के आगे जुते बैलों और उसके वाहक के गुण-स्वभाव में अन्तर रहा करता है; उसी प्रकार हर व्यक्ति का जीवन भी एक-दूसरे से भिन्न हुआ करता है ! सो कर्म के अनुसार ही सबको जीवन – फल प्राप्त हुआ करता है। एक व्यक्ति, जो बहुत धनवान है और भाग्यशाली माना जाता है, यदि वह कर्म करना, पुरुषार्थ करना छोड़ देता है, तो देर-सवेर उसे रोटी के भी लाले पड़ जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं ! इसी प्रकार निरन्तर सूझ-बूझ से काम लेकर परिश्रम करने वाला व्यक्ति भी कभी-न-कभी इच्छित सुख-साधन पा लिया करता है, इसमें भी तनिक सन्देह नहीं । कवि वृन्द ने इसी सच्चाई की तरफ संकेत करते हुए कहा है :
“करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निशान॥”
सो भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का जीवन और समाज में समान महत्त्व हुआ करता सफलता और विजय के लिए दोनों को साथ लेकर चलना आवश्यक है। भाग्यहीन व्यक्ति जिस प्रकार निरन्तर परिश्रम करके भी कभी कुछ प्राप्त नहीं कर सकता, उसके सोने के हाथ । लगाने पर भी जैसे वह मिट्टी बन जाता और बन सकता है; उसी प्रकार पुरुषार्थहीन सौभाग्यशाली भी अधिक दिनों तक अपने भाग्य को बनाये नहीं रख सकता । उसका स्पर्श आज यदि मिट्टी को सोना बना रहा है, तो कल उस समस्त अर्जित सोने को मिट्टी भी बना सकता है। चिर सुख और चिर् सफलता के लिए निरन्तर पुरुषार्थ की राह पर चलते रहना । ही आवश्यक है। निरन्तर किया जाने वाला पुरुषार्थ देर-सवेर भाग्य को खींच लाया करता । है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। इसलिए दोनों में से किसी एक को ‘सब-कुछ’ और दूसरे को कुछ नहीं मानकर कभी नहीं चलना चाहिए। ऐसा चलने वाला ही वास्तव में कहीं का नहीं रह जाया करता।